बन्द हुए मंदिर के ताले
आप मगर कुछ भ्रम न पालें
जीवन-ज्योति न बुझ जाए यह
संस्कृति कहीं न मिट जाए यह
थम जाए चीत्कार धरा की
हालत जो लाचार धरा की
तड़प हमारी कम हो जाए
सिसक जरा मद्धम हो जाए
लौट पड़े जीवन की लाली
लौट पड़े फिर से हरियाली
देवघरों से काट किनारे
बस इसीलिए देव हमारे
उजले पट से तन को ढाँके
उजलेपन से मन को ढाँके
जा अस्पताल के अन्दर बैठे
जैसे कोई कलन्दर बैठे
जैसे कोई कलन्दर बैठे।
©अभिषेक उपाध्याय'श्रीमंत'
देवराजपुर, सुलतानपुर, उ.प्र.